चुनाव निपटाने के बाद तो नेताजी गजबे के रेस हैं… बतंगड़

खबरवाला
चुनाव निपटाकर जबसे नेताजी ने कुर्सी संभाली है, पूरी तरह रेस हैं. इसका कारण भी है कि उनकी कद-काठी वाला कोई उम्मीदवार ही मैदान में नहीं था. पांच साल की संचित ऊर्जा बची की बची रह गई. अब उसका उपयोग जनहित में कर रहे हैं. इनदिनों भयानक रूप से रेस हैं. टाटा से रांची तक, चाईबासा से खूंटी तक, जहां कहीं भी कोई अकूबा सुनते हैं, दौड़ पड़ते हैं. पूरी शिद्दद से पब्लिक की सेवा में लग जाते हैं. बिना कोई भेद किए. वैसे तो शुरू से ही नेता जी डाउन टू अर्थ रहे हैं, घर में भले ढेर सारे विलासिता के साधन हों लेकिन पब्लिक के बीच जन सामान्य की तरह ही रहते हैं. जहां जगह मिल गई, वहीं बैठ गए. जिसने हंकार भेज दिया, वहीं पहुंच गए. बिना अमीर-गरीब का फर्क किए. खासकर बीते पांच साल ने तो बिल्कुल उन्हें प्रोपब्लिक बना दिया है. उन पांच सालों में जिस लोप्रोफाइल को उन्होंने जीया है, अब तो मानो आदत सी बन गई है. आपको मालूम है कि जो आदत लग जाती है, वह जल्दी जाती भी नहीं. एक छोटी सी कहानी सुनाता हूं-एक बस कंडक्टर की शादी हुई. सुहागरात में पत्नी के साथ सोया था. अचानक रात में बुदबुदाने लगा. कहने लगा-जरा उधर घुसको, दो सवारी और एडजस्ट हो जाएगा…पत्नी चौंकी. पूछा-क्या बक रहे हो. और कौन दो आदमी आ रहा है? बस कंडक्टर नींद से जगा. पत्नी को शॉरी बोलते हुए कहा-क्या कहें जानेमन, रोज की आदत हो गई है कम जगह में ज्यादा पैसेंजर एडजस्ट करने की. वही बात सपने में भी आ गई….
खैर, नेताजी तो नेताजी ठहरे. जागत, सोबत, सपने ,सौंतुख एक जैसा व्यवहार और वैसी ही व्यवहारकुशलता. लोग मुरीद बन चुके हैं इनकी. इन्सपेक्टर हो या डायरेक्टर, किसी के साथ बैठने में गुरेज नहीं. कहीं भी बैठने में परहेज नहीं. पिछले दिनों की बात है. आपने अखबारों में पढ़ा होगा खूंटी वाला बस हादसा. उसमें दो लोग मर गए और करीब तीन दर्जन यात्री घायल हो गए थे. नेताजी सीधे रिम्स, रांची पहुंच गए. अस्पताल के बाहर ही एक ठूंठ दीवाल पर बैठ गए. और जब नेता जी बैठ गए तो रिम्स के निदेशक को भी वहीं आना पड़ा और आप मानें या न मानें उसी ठूंठ दीवाल पर साथ में ही बैठना भी पड़ा. मुझे तो लगा कि अंदर में बैठने की जगह नहीं है. लेकिन बाद में पता चला, अच्छा चैम्बर है डायरेक्टर साहेब का.
डायरेक्टर से बहुत देर तक बात हुई. नेताजी ने घायलों का हाल पूछा. साथ में कड़ा निर्देश भी दिया कि इलाज में किसी तरह की कोताही नहीं होनी चाहिए. आप पूछेंगे कि रिम्स जैसे अस्पताल का सिस्टम काम नहीं करता कि नेताजी जैसे व्यक्तित्व को सदेह पहुंचना पड़ता है? दरअसल नेता जी अपने जमशेदपुर वाले एमजीएम अस्पताल को अच्छी तरह जानते हैं. संस्थाओं की सलाहियत मापने का पैमाना तो यही है न. सो वे जानते हैं कि उनके विभाग का सिस्टम कितना काम करता है.वैसे वे अपने विभागीय सिस्टम को दुरुस्त करने में लगे हुए हैं. इसलिए उन्हें बड़े मामलों में खुद ही जाना पड़ता है.आप पूछ सकते हैं कि नेताजी रांची में थे, डायरेक्टर को अपने चैंबर में बुलवा सकते थे. सारे आदेश-निर्देश वहीं फरमा सकते हैं. मैंने पहले ही आपको कहा-नेता जी पूरी तरह डाउन टू अर्थ हैं. पब्लिक का काम पब्लिक के सामने करते हैं. काम में पूरी ट्रांसपिरेंसी भी रखते हैं. दूसरी बात यह कि सारे ‘कैमरा वालेÓ एक्सीडेंट के कारण रिम्स में ही जमे थे. जनता का काम जनता को दिखना भी चाहिए न? बस, डायरेक्ट टेलीकास्ट. जो काम किया पूरे झारखंड ने देख लिया. कितनी सराहना मिली आपको पता है? पता कर लीजिएगा. इनके कामों का गुणगान ऊपर तक पुहंच चुका है. कांग्रेस के एक बड़े नेता ने इनके कामों की तारीफ की है.
अपना विभाग हो या दूसरे का, जनहित में वे लगभग हर विभाग का काम देख लेते हैं. घूसखोरी से उन्हें सख्त नफरत है. लगातार ड्रग इन्सपेक्टरों को चेता रहे हैं और केमिस्ट एंड ड्रगिस्ट को सावधान कर रहे हैं कि बिल्कुल उधर कुछ नहीं देने का. कोई मांगे तो सीधे फोन करने का. डॉक्टरों का तो इतना सम्मान करते हैं कि पूछिए मत. पिछले दिनों एक महिला डॉक्टर को किसी ने लंबी दूरी तक दौड़ाकर परेशान किया, नेता जी को जैसे ही सूचना मिली, ट्रवीटर पर ऑनलाइन हो लिए. पहले बहन जी को सांत्वना दी, फिर दो जवान सस्पेंड. तो ई शान से हो रहा नेता जी काम…

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