आपातकाल का दर्द किसे याद, कौन भूला


25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया था उसके बाद से हर साल इस दिन को काला दिवस के रुप में मनाया जाता है। कांग्रेस जब तक केन्द्र की सत्ता पर काबिज रही तमाम गैर कांग्रेसी विपक्षीदल इस दिवस को काला दिवस के रुप में मनाते रहे। लेकिन अब जबकि देश की राजनीति में भाजपा मुख्यधूरी में आ चुकी है तो 25 जून की को काला दिवस के रुप में मनाने से गैर कांग्रेसी दल परहेज करने लगे। जे पी आंदोलन की उपज माने जदाने वाले नेताओं के लिये आपात काल का वह दौर न भुलाने वाला था, मगर बदले राजनीतिक परिवेश ने उनकी स्मृति से वह दौर विसार दिया। एक समय था जब आपातकाल के दौर के अनुभवों से अखबार के पन्ने 25 जून के अंक में भरे होते थे, आज वह अनुभव केवल भाजपाई ही साझा करते हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आपातकाल के अपने अनुभव को ट्वीट के जरिये साझा कर कांग्रेस पर हमला बोला। यह एक ऐसा मामला है जो कांग्रेस को बैकफुट पर ले जाता है। लेकिन कांग्रेस के लिये अब राहत की बात यह कही जा सकती है कि उस पर आपातकाल को लेकर केवल भाजपा के हमले का सामना करना पड़ता है। वह ऐसा दौर था जब आम नागरिक के संवैधानिक अधिकार छीन लिये गये थे। आज कांग्रेस भाजपा की मोदी सरकार पर देश में अघोषित आपातकाल लगाने की बात करती है। उसे लेकर खासकर राहुल गांधी सोशल मीडिया के माध्यम से लगातार हमलावर रहते हैं। भाजपा पर कभी असहिष्णुता को लेकर हमले होते है तो कभी संवैधानिक संस्थाओं पर हमले की चर्चा होती है। लेकिन करीब चार-पांच दशक पहले के राजनीतिक परिवेश की चर्चा की जाय तो उस समय भी सत्ता हथियाने के लिये तमाम चक्र-कुचक्र रचे जाते थे। रायबरेली संसदीय सीट से इंदिरा गांधी के हाथों पराजित होने वाले सोशलिस्ट नेता राजनारायण ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती देते हुए जो याचिका दायर की थी, उसमें इंदिरा गांधी पर वैसे ही गंभीर आरोप लगाये थे, जैसे गंभीर आरोप आज की सत्ता पर लगाये जाते हैं। चुनाव में धन बल का प्रयोग, सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग से लेकर प्राक्सी उम्मीदवार उतारने जैसे आरोप राज नारायण ने इंदिरा गांधी पर लगाये थे। तब कांग्रेस का चुनाव चिन्ह गायबछड़ा था और उस समय यह आरोप लगा था कि हिन्दू मतदाताओं को लुभाने के लिये इस चुनाव चिन्ह का प्रयोग कांग्रेस द्वारा किया जा रहा है। आज भी इसी तरह के गंभीर आरोप खासकर सत्ताधारी दल के खिलाफ लगाये जाते हैं। आशय यह कि भले समय बदला हो लेकिन चुनाव जीतने या वोटरों को आकर्षित करने या प्रभावित करने के वैसे ही दाव पेंच आज भी किये जाते है।

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