संपादकीय,बदलते दौर में कहां जा रही है पत्रकारिता

सबकुछ समय के साथ साथ बदल रहा है। पत्रकारिता भी बदल रही है। नई तकनीक का प्रयोग हो रहा है। प्रिंट मीडिया लंबे समय तक पत्रकारिता का झंडा ढोये चल रहा था, बाद में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का पदार्पण हुआ। अब न्यूज पोर्टल और डिजिटल मीडिया की भरमार है। यह सब समय के साथ-साथ बदलता है लेकिन सबसे दुखद पहलु यह है कि इस बदलते परिवेशन में पत्रकारिता मजबूत होने के बजाय कमजोर होती चली गई है। पत्रकारिता के मूल स्वरूप को ही बदलकर रख दिया गया है। इसकी निष्पक्षता, विश्वसनीयता को ही तार-तार करने का प्रयास हो रहा है। एक समय था जब पीत पत्रकारिता को बड़ा ही अपमानजनक संबोधन माना जाता था। अब तो पत्रकार और मीडिया हाउस सुपारी लिये चलते हैं। किसके कद को कम करना है और किसके लिये काम करना है,सबकुछ खुल्लमखुल्ला हो रहा है। कुछ माह पहले रांची में देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रमैया ने पत्रकारिता के गिरते स्तर पर चिंता जताई थी और कहा था कि प्रिंट मीडिया ही पत्रकारिता के स्तर को बहुत हद तक कामय रखा है। बाकी ने तो पत्रकारिता के स्तर को गिरा दिया है।
इन दिनों कांग्रेसी नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा चल रही है। राजनीति में राजनीतिक दलों को ऐसी यात्रा निकालने का हक है, निकालना भी चाहिए। राहुल गांधी ने यात्रा की शुरूआत में कहा था कि उनको मीडिया कवरेज नहीं मिलता। इसी कारण वे यात्रा निकाल रहे हैं ताकि मीडिया का उनकी ओर ध्यान जाये। यह बहस का अलग मुद्दा है कि वे ऐसा करते क्या हैं कि उनको मीडिया कवरेज मिले? लेकिन उनकी यात्रा को लेेकर मीडिया साफ तौर पर दो फाड़ दिखता है। एक वर्ग ऐसा है जिसे इस यात्रा में खामी ही खामी दिख रही है तो दूसरा वर्ग ऐसा है जो इस यात्रा का हर तरह से महिमा मंडित करने और परिवर्तन का प्रतीक बताने में लगा है। एक टीवी चैनल के पत्रकार ने हाल ही राहुल गांधी की यात्रा में पहुंचकर दूर से राहुल-राहुल मिस्टर राहुल चीखता दिख रहा है। उक्त टीवी चैनल ने इसे लेकर खबर बनाई कि उस चैनल के सवालों से राहुल भागते नजर आये। वहंीं दूसरी ओर राहुल की यात्रा को ऐतिहासिक साबित करने वाले टीवी चैनल या पत्रकार उक्त पत्रकार एवं चैनल की रिपोर्टिंग के तरीके पर लगातार सवाल उठा रहे है। ऐसा लगता है कि सबकुछ योजनाबद्ध तरीके से किया जा रहा है। राहुल-राहुल चीख रहा रिपोर्टर पत्रकारिता को शर्मसार करना साफ तौर पर दिखता है, लेकिन दूसरे पक्ष के तमाम चैनल या पत्रकार लगभग एक ही स्वर में जिस तरह सवाल उठा रहे हैं, ऐसा लगता है कि उसकी भी कहीं से स्क्रिप्ट लिखी गई है। ऐसा नहीं है कि पहले की पत्रकारिता विचारधारा से प्रभावित नहीं होती थी, लेकिन सबकुछ गरिमापूर्ण तरीके से किया जाता था। आज के दौर की तरह सुपारी नहीं ले ली जाती थी। यह वाकई चिंताजनक है।

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