विश्वकर्मा पूजन-प्राचोनता एवं आधुनिकता

शास्त्रीय परम्परा के अनुसार तीन प्रकार के कर्म होते हैं- नित्य, नैमितिकं एवं काम्य। न्तियकर्म की कोटि में सन्ध्यावन्दन आदि आते है। उक्त कर्म को न करने से अपराध होता है। किसी निमित के लिए अगर कोई कर्म किया जाता है, जैसे ग्रहण के समय में स्नान एवं जप आदि को नैमितिक कर्म कहते हैं जिसे करने से पुण्य एवं न करने पाप लगता है। काम्य कर्म किसी इच्छा या कामना को पूरा करने के लिए किया जाता है। इसे इसे करने से लाभ, न करने पर कोई हानि नहीं होती है। किसी पूजा को या तदन्तर्गत विश्वकर्मा पूजा को हम नित्य, नैतितिक और काम्य कर्म की श्रृंखला में ला सकते हैं। नित्य इसलिए है कि न करने से परत्यवाय, नैमितिक इसीलिए है कि निश्चित तिथि में पूजा का विधान है। इसलिए काम्य है कि करने से भक्तों की मनस्कामना की पूर्ति के साथ मंगल भी होता है।
विश्वकर्मा का जन्म
परम्परा के अनुसार ब्रह्मा जी के धर्म नामक पुत्र के सातवां सन्तान का नाम था वास्तु। वास्तु का पुत्र विश्वकर्मा जो अपने पिता की भांति महान् शिल्पकार बने। उनके शरीर का वर्णण इस प्रकार है:-
कम्बसूत्राम्बुपात्रं वहति करतले पुस्तकं ज्ञानसूत्रम्।
हंसारुढस्त्रिनेत्रं शुभमुकुटशिर: सर्वतो वृद्धकाय:।।
अर्थात विश्वकर्मा जलपात्र, ज्ञान सूत्र, पुस्तक, मुकुट धारण पूर्वक हंस पर आसीन होते हैं। स्वरुप वृद्ध रुप होता है।
विश्वकर्मा सम्बन्धित कथा
देव शिल्पी या रथपति विश्वकर्मा तथा दानव शिल्पी मय होना पुराण प्रसिद्ध हैं। परम्परा के अनुसार श्री जगन्नाथ, बलभद्र, माता सुभद्रा एवं सुदर्शन का निर्माण एक ब्राह्मण के रुप में आकर विश्वकर्मा किये थे। एक बंद कमरे के अन्दर यह कार्य करने का शर्त था। मूर्ति निर्माण के पूर्व दरवाजा खुलने से वे अनर्हित हो गये जिस कारण मूर्ति अधगढ़ी रह गई। आज भी तीन देवताओं के पैर नहीं है और मां सुभद्रा का हात भी नहीं बने हैं।
शंकर जी के त्रिशूल एवं विष्णुजी के सुदर्शन चक्र का भी निर्माण विश्वकर्मा ने किया। पुराणों के अनुसार सूर्य की पत्नी संज्ञा विश्वकर्मा की पुत्री जो सूर्य के प्रखर तेज को सहन न कर सकी। अपने शरीर के छाया को मूर्त रुप देकर सूर्य के पास छोड़ कर समुद्र में घोड़ी के रुप में तपस्या की। बाद में सूर्य को यह ज्ञात होने पर बडवा अर्थात् बडवाग्नि के रुप में समुद्र में प्रवेश कर उन्होंने अपनी पत्नी को मनाया। विश्वकर्मा पुत्री का दुख: देख कर सूर्य के तेज को कम करने हेतु उनके शरीर का रन्धा लगा कर उनके आकार को छोटा किया। रन्धा लगाने के कारण उनके शरीर से जो गरदें (छिल्लकें) निकले उनसे त्रिशूल एवं सुदर्शन बनाया। अत: दोनों अस्त्र सूर्य समान ही तेजीयान है।
उसी प्रकार पृथिवी के निर्माण में उन्होंने ब्रह्मा के आदेश से पृथु की सहायता की। भगवान् श्रीकृष्ण की द्वारकापुरी तथा इन्द्र की अमरावती का निर्माण भी उसने किया। गणेश की पत्नी ऋद्धि एवं सिद्धि भी विश्वकर्मा की पुत्रियां हैं जिनके शुभ और लाभ दो पुत्र हैं।
विश्वकर्मा की पूजनविधि
अश्विन मास अर्थात् सितम्बर माह चतुर्दशी तिथि में विश्वकर्मा का पूजन होता है। भारतीय परम्परा के अनुसार त्रिदेव-ब्रह्मा, विष्णु और शिव क्रमश: सृजन, पालन एवं संहार करते हैं। ब्रह्मा जी की आज्ञा से विश्वकर्मा भवन एवं आयुध आदि का निर्माण करते हैं।
प्रात: काल स्नानादि कर्म से निवृत होकर मण्डप में विश्वकर्मा की मूर्ति को स्थापित करके वस्त्र एवं अलंकारों से मण्डित करते हुए विधि-विधान से पोषड्शोपचार से पूजा होती है। बाद में प्रसाद वितरण होता है। पूजा के अगले दिन या तिथि के अनुसार मूर्ति का विसर्जन किया जाता है।
समसामयिक सांस्कृतिक स्वरुप
विश्वकर्मा विश्व ब्रह्माण्ड के सर्व प्रथम इंजीनियर एवं वास्तुशिल्पी हैं। आज भी अत्यन्त भव्यता से छोटी-छोटी दुकान से लेकर बड़े-बड़े उद्योगों में विश्वकर्मा जी की पूजा होती है। विश्वकर्मा समस्त औजारों एवं अस्त्र-शस्त्र की देवता होने के कारण विभिन्न आयुधों का भी पूजन उक्त तिथि में होता है।
विश्वकर्मा द्वारा विरचित विश्वकर्मीय ग्रन्थ बहु प्राचीन है जिसमें वास्तु विद्या, रत्न एवं रथादि वाहन निर्माण कौशल की चर्चा की गई है। अनन्तर ‘विश्वकर्मा प्रकाश’ ग्रन्थ लिखा गया, जो वास्तुविद्या का प्रामाणिक ग्रन्थ है। आज विश्वकर्मा पूजन के अवसर पर ब्रह्माण्ड के आद्य रथपति, यन्त्रविद्या एवं उद्योग के प्रथम गुरु का शत शत वन्दन करते हैं।

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