सडक़ किनारे बैठे सब्जी विक्रेताओं से न करें मोल भाव

आमतौर पर होटलों रेस्टोरेंट में टिप के नाम पर सौ, दो सौ, 500रु तक लुटाने वाले सडक़ किनारे सब्जी बेच रही महिलाओं या पुरुषों से 5-10 रुपये के लिए रगड़ा रगड़ी करते दिख जाते हैं। यह विचित्र मानसिकता है। मॉल में पॉपकॉन के लिए 200 रुपये खर्च कर दिए जाते हैं मगर वे 200रुपये भारी नहीं लगते. वहां कोई यह उलाहना नहीं देता कि सडक़ किनारे तो यह 20 रुपये में मिलते हैं। हवाई अड्डे या पांच सितारा होटलों में चाय पर 500 रुपये तक की चाय सुडक़ने वाले वहां भी कोई मोल मोल भाव नहीं करते। मोबाइल रिजार्च के लिये हमारी आपकी जेब कितनी काटी जाने लगी है, बताने की जरुरत नहीं ,मगर ऐसे लोग भारी बरसात या कड़ी धूप में सडक़ किनारे सब्जी बेचने वालों से जब मोलभाव करते दिखते हैं तो बड़ा अजीब सा लगता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मन की बात के 100 एपिसोड के दौरान इस बात का जिक्र किया तो बात महत्वपूर्ण लगी । पूरे देश का ध्यान इस ओर कितना खिंचा पता नहीं लेकिन है यह बात अहम। आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोधी हो सकते हैं मगर इस बात की और उन्होंने ध्यान आकृष्ट कराया वह बेहद महत्वपूर्ण है। कोई और यह बात करें तो हो सकता है कि किसी का ध्यान ना जाए मगर जब देश का प्रधानमंत्री इस तरह की कोई बात कहता है तो यह तो वह महत्वपूर्ण हो जाता है। बात छोटी है मगर बहुत गंभीर है। हम कभी उस सब्जी वाले के नजरिए से दुनिया को देखने का प्रयास करें तो समझ में आएगा। सुदूर गांव से अपने खेतों से सब्जी उड़ा कर साइकिल पर या भाड़े की गाड़ी पर उनको लादकर वह हमारे आपके घरों के आसपास सडक़ के किनारे बैठ कर उन्हें बेचता है। ऐसे लोग की सुबह तीन चार बजे से ही शुरु हो जाती है। जब हम सोए रहते हैं तब वे खेतों से सब्जियां तोडक़र हमारे आपके लिए उन्हें लेकर आते हैं । बदले में हम क्या करते हैं ? उनके हिस्से का 10 -20 रुपये मारकर हम कितना संचय कर लेते हैं। वही खरीददार किसी मॉल में फिक्स रेट और वजन को चुपचाप स्वीकार करता है, वहां कोई सवाल नहीं उठाया जाता मगर सब्जी वालों के तराजु की डंडी हमारी ओर झुकी होनी चाहिए हम इसका पूरा इंतजाम करना चाहते हैं । उस सब्जी वाले के लिए दिन भर की 100 -200 की कमाई कितनी महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। जिस देश में न्यूनतम मजदूरी करीब 300 रुपये के आसपास हो वहां पर सब्जी विक्रेता दिनभर इतनी कड़ी मेहनत कर और अपने खेतों के उत्पाद को हमें बेचकर वह न्यूनतम मजदूरी भी नहीं हासिल कर पाए तो यह कटोचने वाली बात है। ऊपर से हम ऐसे लोगों को कुछ देने के बजाय उनका वाजिब हम मारने में लगे होते हैं। समाज ही काफी है ऐसे लोगों की मदद के लिये। बस हमें अपनी सोच में परिवर्तन लाने की जरूरत है । कोरोना काल में जब ऐसे सब्जी विक्रेता हमारे पास तक नहीं पहुंच रहे थे तब उसका महत्व हमें समझ में आया था लेकिन हम चीज बहुत जल्दी भूल जाते हैं । इसे भी भुला दिया हम यह भूल जाते हैं कि जब सूरत आसमान से आग बरसाता है, तापमान 44 डिग्री तक पहुंच जाता है, ऐसे सब्जी विक्रेता सडक़ के किनारे सर पर गमछा डाले या कई बार नंगे सिर चादर में सब्जी बेचने को बैठे होते है। उनसे सब्जियां खरीद कर उन पर कोई एहसान नहीं करते मगर खरीदार का अंदाज यही दर्शाता है कि मानों हम सब्जियां खरीद कर उस पर एहसान कर रहे हैं। ज्यादा वजन लेने के लिए उसे झिडक़ देते हैं जब जमशेदपुर में 10 रुपये में दो किलो टमाटर मिलता है तो कई खरीददार ढाई किलो की मांग करता है। ऐसे लोग व्हाट्सएप पर हम अच्छी-अच्छी बातें खूब फॉरवर्ड करते हैं । हो सकता है इन सब्जी विक्रेताओं के दुख दर्द को ही न जाने कितनी बार फॉरवर्ड किया होगा मगर कितने ऐसे हैं जिन्होंने ठहर कर, रुक कर इनके दर्द को समझने का किया है? हम ऐसा कर पाते लाखों सब्जी विक्रेताओं को वह खुशी प्रदान कर सकते हैं जिसके वे हकदार हैं। महीने में इन सब्जी विक्रेताओं से हम सौ दो सौ रुपये की कथित बचत कर कितनी कमार्ई कर लेंगे लेकिन यह रकम इन विक्रेताओं के लिए बहुत बड़ी कमाई बन जाती है।
आश्चर्य

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