जन्मशती: रेणु की कालजयिता / अलक्षित गौरव : रेणु

आजादी के बाद के कथा साहित्य में फणीश्वरनाथ रेणु भाव भाषा शैली और ठेठ ‘देशीयता’ का विशिष्ट रंग-ढंग लिए अलग धरातल पर खड़े दिखाई देते हैं। मिट्टी की ऐसी सोंधी और प्रामाणिक गंध, लोकजीवन की ऐसी गहरी सम्प्रक्ति नई कहानी आंदोलन के किसी भी कहानीकार में नहीं मिलती। रेणु के साहित्य को जाने बिना शायद ही किसी को हिंदी साहित्य में आजाद भारत के ग्रामीण अंचल की प्रामाणिक और जीवंत तस्वीर देखने को मिले। धरती के धनी और वसुंधरा की सम्पदा के स्वामी माने जाने वाले रेणु ने आँचलिकता को उपन्यास विधा का एक स्वतंत्र कृति के रूप में प्रतिष्ठापित किया और ग्रामंचल के शिल्पी के रूप में समाहित हुए। उन्होंने अपनी समूची कथा यात्रा के दौरान मानवीय संवेगो और कलात्मक संकेतो से समन्वित जिस हिंदी गद्य को रचा है, उसमें पाठकीय संवेदना को झकझोर देने की असीम शक्ति निहित है।
हिंदी कथा साहित्य में प्रेमचंद के असली वारिस कहे जाने वाले फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म बिहार के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना गाँव में 4 मार्च 1921 को हुआ और निधन 14 अप्रैल 1977 को। उपन्यासकार, कथाकार और रिपोर्ताज लेखक के रूप में रेणु ने अपने ही किस्म की रचनाएँ हिंदी साहित्य को दी। कथा साहित्य में रेणु को व्यापक प्रतिष्ठा वर्ष 1954 में प्रकाशित मैला आँचल से मिली। जिसने उन्हें प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचा दिया। नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा है – “मैं अपने श्रेष्ठ उपन्यासों की सूची से गोदान को छोड़कर किसी भी रचना को ‘मैला आँचल’ के लिए अपदस्थ कर सकता हूँ। ” हिंदी सिनेमा के रूपहले पर्दे पर आई रेणु की ‘तीसरी कसम’ कहानी ने उनकी लोकप्रियता को भरपूर उठान दी। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं –
उपन्यास:- मैला आँचल, परती परिकथा, जुलूस, दीर्घतपा, पलटू बाबू रोड, कितने चौराहे।
कहानी :- ठुमरी, आदिम रात्रि की महक, अग्निखोर, मेरी प्रिय कहानियाँ।
रिपोर्ताज :- ऋणजल-धनजल, नेपाली क्रांति कथा, वन तुलसी की गंध।
निबंध :- श्रुत-अश्रुत पूर्व।
आजादी के बाद का करवट लेता हिंदुस्तानी गाँव नयी आहटो की उपस्थिति दर्ज कराते हुए रेणु के उपन्यासों में उजागर हुआ, जिसमें ग्रामीण जन-जीवन की वास्तविक हलचलो, परिवर्तित, स्थितियों, टकरावो, तनावो और जटिलताओ तथा विडम्बनाओ के बीच पिसती मानवीय पीड़ा को एवं बनते-बिगड़ते मानवीय सम्बन्धो को एक साथ अभिव्यक्ति मिली। रेणु की कहानियों में ग्रामीण आँचलिक परिवेश के साथ-साथ शहरी जीवन की विभिन्न स्थितियों को भी अपने वस्तुविन्यास में समेटा है। ‘मूल राग से आँख मिचौली खेलती’ उनकी आँचलिक कहानियों में ‘देश की मिट्टी बोलती है’ तो शहरी जीवन की कहानियों में मध्यवर्गीय जीवन की वास्तविक संवेदनाओ से रचना का सम्बन्ध तैयार हुआ। रिपोर्ताज लेखक के रूप में भी रेणु ने उल्लेखनीय साहित्य रचा है। लोकजीवन से लेकर नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान युद्ध तथा दक्षिण बिहार के अभावग्रस्त क्षेत्रों से लेकर फ़िल्म नगरी मुंबई तक उनके रिपोर्ताज लेखन की फलक फैला हुआ है, जिनमे वर्तमान से उत्पन्न स्थिति विशेष के अायामो को चित्रात्मक शैली में अभिव्यक्ति मिली।
प्रेमचंद की महत्त्वपूर्ण कड़ी होते हुए भी रेणु उनसे भिन्न रास्ते पर चले। उनके कथा साहित्य में प्रेमचंद की तरह आदर्शवादी ढांचे की भूमिका नहीं है, न ही आदर्श और यथार्थ के समन्वय पर बल है, बल्कि उनके साहित्य में जीवन के ठोस और वास्तविक परिप्रेक्ष से साक्षात्कार कराते हुए मानवीयता की खोज का संकल्प है। रेणु अपने साहित्य में मनुष्य के भीतर से मनुष्यता की गंध को ढूंढ़ते नजर आते है, अमानवीय होते जा रहें हैं, समाज में मानवीय सरोकारों और मानवीय ऊर्जा की तलाश करते नजर आते हैं तथा नीरसता में सरसता की खोज करते हैं। इसी कोशिश में वे लोकजीवन और लोकसंस्कृति से जुड़ते हैं। उनका कथा साहित्य लोकजीवन की संपन्नता और सांस्कृति समृद्धि को साथ लेकर चलता है।
लोकभाषा का सहज़ और जीवन रूप रेणु के साहित्य को प्राणवान बना देता है। ‘गप्प रसाने के भेद’ लोकवार्ता के रस और किस्सागोई की शैली में लोकजीवन की समरसता, लयात्मकता और बिम्बात्मकता का समावेश रेणु के गद्य की विशिष्टता है। जहाँ नाटकीयता या प्रत्यक्षीकरण का बोध चमत्कारिक ढंग से नहीं बल्कि यथार्थ का बोध देने वाले स्थित्तियों के चित्रण से पैदा होता है। हिंदी साहित्य के इस लाड़ले रचनाकार को कुछ आलोचकों ने ‘अपदार्थ, अप्रतिबद्ध, व्यर्थ रोमांटिक प्राणी’ प्रमाणित करने की कोशिश की। यह ठीक है कि रेणु की रचनाएँ गहरे जीवन-दर्शन के आग्रह को लेकर नहीं चलती और न ही निष्कर्षात्मक निदान प्रस्तुत करने में विश्वास करती है लेकिन उनमें मानवीय संवेदनाओं का जो ताप है, अमानवीय होते जा रहें हैं समाज से तथा मानवीय अंतर्द्वंद्वों-तनावों से जूझने की शक्ति और मानवीय सरोकारों को तलाशने की जो ललक है वही उसको सार्थक बनाती है। आँचलिकता को कथा साहित्य की विशिष्टता के रूप में प्रतिष्ठापित करने वाले रेणु ने उपन्यास के विकास को नई पगडंडी पर डालकर ऐतिहासिक महत्त्व का काम किया है।

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