मीडिया रिपोर्टिंग पर सुप्रीम कोर्ट के सवाल

जिस तरीके से मीडिया खासकर इलेक्ट्रानिक एवं डिजिटल मीडिया की रिपोर्टिंग हो रही है, वह सवालों के घेरे में है। मीडिया का यह सेक्सन आखिर क्या दिखाना चाहता है, यह बड़ा सवाल है। इनपर होने वाली बहसों को देखें तो वह कुछ मुद्दों तक ही सीमित दिखेंगे। आम जनमानस की बातों को इनमें कितना स्थान मिलता है, कितनी तवज्जो दी जाती है, यह सभी देख रहे हैं। टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों में चंद चेहरे हर मुद्दे पर गाल बजाते दिखते हैं । ये चंद लोग ही पूरे देश की मानसिकता, विचार तय करते प्रतीत होते हैं। टीवी एंकर उनको फटकार लगाते हैं, यहां तक कह देते हैं कि आप राष्ट्रीय चैनल पर बहस करन के योग्य नहीं , लेकिन अगले दिन फिर उसी को वही शक्स दिखता है। कुछ लोगों के ही विचार पूरे देश पर थोपा जा रहा है। यह जरुर चिंता की बात है। कुछ लोग के विचार पूरे समाज का विचार मान लिया जाना खतरनाक है और । उन बहसों का प्रतिकूल प्रभाव सोशल मीडिया पर पड़ता है और वहां अपमानजक बातें, गाली गलौज किया जाने लगा है। अब तो टीवी चैनलों पर ही अपशब्द खुले आम बोले जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया के एक सेक्शन में कम्युनल टोन में रिपोर्टिंग को लेकर कड़ी नाराजगी जाहिर की। कोर्ट का कहना है कि इस तरह की रिपोर्ट से देश का नाम खराब होता है। अदालत ने सोशल मीडिया पर फैलाई जा रही फेक न्यूज को लेकर चिंता जताई। साथ ही वेब पोर्टल की जवाबदेही को लेकर भी टिप्पणी की। चीफ जस्टिस की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि वेब पोर्टल पर किसी का नियंत्रण नहीं है। हर खबर को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश हो रही है, जो कि एक बड़ी समस्या है। इन बहसों का प्रभाव जनमानस पर इतना पडऩे लगा है कि वह जनहित की बात अब सुनना नहीं चाहता।
ऐसा नहीं है कि मीडिया अभी एकतरफा रिपोर्टिंग कर रही है। गुजरात दंगा को लेकर भी ऐसा ही हुआ था। उस समय ही उस दंगे की तश्वीर के जरिये एक धारणा बनाने का प्रयास किया गया था । देश में इसके पहले भी कई दंगे हुए लेकिन दंगा का मतलब गुजरात दंगा साबित करने की कोशिश हुई। सब एक एजेंडा के तहत उस समय भी हुआ, आज भी हो रहा है। उस समय हालात इतने इस लिये नहीं बिगड़े क्योंकि तब सोशल मीडिया का जोर नहीं था। आज सोशल मीडिया आग में घी का काम कर रहे हैं।
चीफ जस्टिस एनवी रमना ने इस बात पर चिंता जताई कि ट्विटर, फेसबुक और यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जजों को जवाब नहीं देते हैं और बिना किसी जवाबदेही के संस्थानों के खिलाफ लिखते रहते हैं। वेब पोर्टलों और यू ट््यूब चैनलों पर फर्जी खबरों को लेकर कोई नियंत्रण नहीं है। अगर आप यूट्यूब पर जाएंगे तो पाएंगे कि कैसे फर्जी खबरें खुलेआम सर्कुलेट हो रही हैं। कोई भी यूट्यूब पर चैनल शुरू कर सकता है। ऐसे लोगों की कोई जवाबदेही नहीं होती। ंिप्रट मीडिया की आज भी गरिमा इसी कारण है। क्योंकि उसकी जवाबदेही तय है। लेकिन इन सोशल मीडिया को लेकर कोई नियामक नहीं है।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट को जवाब दिया कि नए आईटी रूल्स सोशल और डिजिटल मीडिया को रेग्युलेट करने के लिए बनाए गए हैं और रेग्युलेट करने का प्रयास जारी है। पिछले दिनों तत्कालीन आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने जो आईटी रुल सोशल और डिजिटल मीडिया के लिये बनाये, उसे लेकर भी प्रतिक्रिया आई। जिनको कुछ भी कह देने, कुछ भी लिखने की बिना किसी जवाबदेही के आजादी मिली हुई है, वे इस नियम से खफा हैं। प्रिंट मीडिया की जबाबदेह होती है। इसी कारण अभी भी उसकी विश्वसनीयता कायम है। लेकिन अन्य माध्यमों पर सवाल उठ रहे हैं क्योंकि उनकी कोई जबाबदेही नहीं है , इनको ही अधिक वायरल भी किया जाता है।

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