पतन के इस मुकाम पर भी कांग्रेसी एकजुट नहीं

चारों तरफ खतरे हैं. जनाधार खिसक रहा है. सत्तारूढ़ दल मजबूत है. वह अच्छी तरह आज भी जानता है कि अगर उसका ताजोतख्त आज भी कोई छीन सकता है तो वह कांग्रेस ही है. कांग्रेस ही आज भी ऐसी पार्टी है जिसका संगठन पूरे देश में है, गांवों की चौपालों तक है. आज भी जब अवाम का सत्तारूढ़ से मोहभंग होता है तो कांग्रेस ही याद आती है लेकिल कांग्रेस वाले इसे समझने को तैयार नहीं है. आंदोलन के पेट से निकला यह दल आज सुविधाभोगी बनता जा रहा है. जन समस्याओं को लेकर सड़क पर उतरने से डरता है. पब्लिक इस दल को चुनकर सरकार बनाने को भेजती है और कांग्रेसी सरकार चला नहीं पाते. एक के बाद एक सरकार गिरती चली जा रही है. पुडुचेरी में कांग्रेस नीत वी नारायणसामी सरकार की सरकार भी आज चली गई. उसे आज सदन में बहुमत साबित करना था और मतदान से पहले ही कांग्रेस और डीएमके के विधायकों ने सदन से वॉकआउट कर दिया. इसके बाद विधानसभा अध्यक्ष ने ऐलान किया कि सरकार बहुमत साबित करने में विफल रही है. दिल्ली से कोई नेता अपनी कूटनीतिक समझबूझ दिखाने या चेहरा दिखाने भी वहां नहीं पहुंचा. पुडुचेरी में सरकार गिरने के बाद कांग्रेस ने दक्षिण भारत में कर्नाटक के बाद दूसरा राज्य गंवा दिया. कभी कांग्रेस के मजबूत गढ़ के रूप में माने जाने वाले दक्षिण में आज पार्टी सभी राज्यों में सत्ता से बाहर हो चुकी है.
इस तरह की पराजय बताती है कि कांग्रेस पार्टी सत्ता की लड़ाई में लगातार भाजपा से पिछड़ती जा रही है. पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और झारखंड को छोड़कर आज पूरे देशभर में पार्टी सत्ता से बाहर हो चुकी है. महाराष्ट्र और झारखंड में कांग्रेस भले ही सत्ता में हो लेकिन यहां पार्टी की भूमिका क्रमश: नंबर तीन और नंबर दो की ही है. इस साल पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इनमें पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, असम और पुडुचेरी शामिल हैं. इन चुनावों में पार्टी के लिए जीत हासिल करना बड़ी चुनौती है. पश्चिम बंगाल में तो मुख्य लड़ाई इस बार भाजपा और तृणमूल के बीच ही मानी जा रही है. यहां पार्टी लेफ्ट के साथ गठबंधन में है. वहीं तमिलनाडु में पार्टी डीएमके के साथ गठबंधन के जरिये सत्ता में आने की कोशिश करेगी. केरल में पार्टी का वाम नीत एलडीएफ से मुकाबला है. असम में भाजपा की सरकार है. यहां कांग्रेस की सीधी लड़ाई भाजपा से है. लेकिन पार्टी पतन के इस मुकाम पर भी एकजुट नहीं है. पार्टी के अंदर कलह और राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व को लेकर असंतोष सार्वजनिक हो चुका है. पार्टी के भीतर ही दो धड़े वजूद पा चुके हैं. पार्टी में आंतरिक चुनाव को लेकर गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा समेत 23 वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया गांधी को पत्र लिख पार्टी में बड़े बदलाव की मांग कर चुके हैं. इसको लेकर कई बार वरिष्ठ नेताओं की बैठक हुई लेकिन नतीजा आज तक नहीं निकल पाया.
कांग्रेस की अंदरुनी लड़ाई की देन ही है कि दो राज्य मप्र और कर्नाटक में पार्टी को सत्ता तक गवांनी पड़ी. मध्यप्रदेश में कांग्रेस 15 साल बाद सत्ता में लौटी थी लेकिन यह सरकार 15 महीने भी नहीं टिक पाई. तमाम विसंगतियों और खिसकते जनाधार का मूल कारण पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा अपनी बदहाली के कारणों को नहीं समझना ही है. वह आज भी स्वस्थ आत्ममंथन करने की स्थिति में नहीं है. आंतरिक रूप से कमज़ोर संगठन का आत्ममंथन उसके संकट को बढ़ा भी सकता है. क्योंकि
अस्वस्थ पार्टी स्वस्थ आत्ममंथन नहीं कर सकती. यह राजनीति की ‘सोशल इंजीनियरिंगÓ में फेल हो रही है. पचास के दशक में जब हिंदू कोड बिल पास हुए थे, तबसे कांग्रेस पर हिंदू विरोधी होने के आरोप लगते रहे हैं, पर कांग्रेस की लोकप्रियता में तब कमी नहीं आई. साठ के दशक में गोहत्या विरोधी आंदोलन भी उसे हिंदू विरोधी साबित नहीं कर सका. वस्तुत: आज की स्थिति को कांग्रेस के नेतृत्व, संगठन और विचारधारा के संकट के रूप में देखा जाना चाहिए. कांग्रेस की रणनीति यदि सांप्रदायिकता विरोध और धर्मनिरपेक्षता की है, तो वह उसे साबित करने में विफल रही है. कभी यह पार्टी हिन्दू समर्थक बनने की कोशिश में मंदिरों में घुसकर पूजा-पाठ करती नजर आती है या जनऊ पहन लेती है तो कभी अल्पसंख्यकों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने को आतुर दिखती है. पिछले साल जून में पार्टी के वरिष्ठ नेता एके एंटनी ने केरल में पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा था कि ‘छद्म धर्मनिरपेक्षताÓ और अल्पसंख्यकों के प्रति झुकाव रखने वाली छवि सुधारनी होगी. उनके बयान से लहरें उठी थीं, पर जल्द थम गई थीं.
दरअसल पार्टी यह तय नहीं कर पा रही है कि हमें शुरू कहां से करना है और कहां तक जाना है. पार्टी की प्रथम पंक्ति के नेता इसमें राहुल-प्रियंका की मदद करते नहीं दिख रहे हैं या नया नेतृत्व उनकी मदद लेना नहीं चाहता. दोनों बातें हो सकती हैं. इससे पार्टी को लगातार नुकसान हो रहा है.

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