बैंक इस तरह कर्ज के बहाने पब्लिक मनी का बंटाधार न करें

भारतीय रिजर्व बैंक का दावा है कि भारत की वित्तीय स्थिति में कोविड-19 के चलते आई लडख़ड़ाहट के बाद बड़ी तेजी से सुधार हुआ है. यह अब तो कोरोना वायरस के चलते फैली महामारी के पहले से भी बेहतर हो गई है. क्रिसिल ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि आरबीआई ने देश की इकनॉमी को सपोर्ट देने के लिए दूसरे देशों के केंद्रीय बैंकों के साथ कदमताल किया है. उसके उठाए गए कदमों से कोविड-19 के चलते हुए व्यापक आर्थिक नुकसान की भरपाई हो गई है. भारत को दुनियाभर के ग्लोबल इकनॉमी को बढ़ावा देने वाली मॉनेटरी पॉलिसी से फायदा हुआ है. आरबीआई ने जो कदम उठाए हैं, उनसे इकनॉमी पर बना शॉर्ट टर्म प्रेशर घटाने में मदद मिली है. लेकिन एक सच यह भी है कि भारतीय बैंकों ने पिछले 10 सालों में 8.83 लाख करोड़ रुपए के कर्जों को राइट ऑफ कर दिया है. इसमें से सबसे ज्यादा राइट ऑफ सरकारी बैंकों ने किया है. इनमें एसबीआई और आईसीआईसीआई बैंक टॉप पर हैं. राइट ऑफ का मतलब यह है कि ऐसे कर्ज जिनकी थोड़ी बहुत वसूली संभव है. यानी वसूली हुई तो ठीक नहीं हुई तो भी ठीक. रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि सरकारी बैंकों ने साल 2010 से जितने कर्जों को राइट ऑफ किया है, यह कुल कर्जों के राइट ऑफ का करीबन 76 प्रतिशत है. निजी सेक्टर के बैंकों ने भी इस अवधि में 1.93 लाख करोड़ रुपए के कर्ज को राइट ऑफ किया है. निजी बैंकों का राइट ऑफ कुल राइट ऑफ का 21 प्रतिशत है. विदेशी बैंकों ने इस दौरान 22 हजार 790 करोड़ रुपए के कर्ज को राइट ऑफ किया. यह कुल राइट ऑफ का 3 प्रतिशत हिस्सा है. वित्त वर्ष 2019-20 में इन बैंकों ने कुल 2.37 लाख करोड़ रुपए के कर्ज को राइट ऑफ किया है. ये पैसे जनता के थे. उनकी यह कमाई बैंकों के कुप्रबंधन का शिकार हो गई. इसका कोई माई-बाप नहीं रहा. कोई लेकर विदेश भाग गया तो किसी ने औद्योगिक या व्यापारिक संथाओं से मिलीभगत कर डूबा दी. इसमें कहीं न कहीं सरकार की नीतियां भी जिम्मेवार रहीं. जैसे अभी की सियासत में चुनाव से पहले कर्ज माफ करने की घोषणा एक फैशन बन गया है. बाद में कर्जों की माफी जिम्मेदारी बतायी जाती है. माफी का यह पैसा कोई सरकार या पार्टी अपने घर से तो नहीं लाती बल्कि फिर जनता की ही जेब काटी जाती है. उसी का नतीजा है कि आज 32 रुपये का पेट्रोल 82 रुपये लीटर खरीदना पड़ रहा है. लोकल रेलगाड़ी की सवारी करने पर स्पेशल का किराया यानी कम से कम डेढ़ गुना ज्यादा चुकाना पड़ रहा है. बैंक वाले कदम-कदम पर जुर्माना लगाकर अपने घाटे की पूर्ति कर रहे हैं. पैसा डुबाओ तुम और जुर्माना भरे देश की जनता. क्यों नहीं ऋण राशि डूबने पर कर्ज स्वीकृत करने वाले मैनेजर का पीएफ-पेंशन जब्त कर भरपाई की जाती है? अब तो बैंकों में रिस्क मैनेजर भी बैठने लगे हैं. अगर इन सबों के रहते भी पैसे डूब रहे हैं तो आखिर ये किस मर्ज की दवा हैं? दूसरी बात, सरकारें भी क्रेडिट-डिपोजिट रेशियो के बहाने बैंकों को कर्ज देने को मजबूर करती हैं. ठीक है, बाजार में कैश फ्लो बढ़ाने या क्रय क्षमता विकसित करने के लिए सरकारें ऐसा करती हैं तो ऋण वसूली में वह बैंकों का साथ क्यों नहीं देतीं?
सच तो यह भी है कि गरीबों के यहां कम पैसे डूबते हैं, अमीर ज्यादा डुबाते हैं क्योंकि वहां बैंकों की भी मिलीभगत होती हैं. बैंक जवाबदेह क्यों नहीं बनाए जाते? सरकार या आरबीआई क्यों नहीं इनके गिरेबान पकड़ती हैं? कई उद्योग इसलिए नहीं चल पाते क्योंकि श्ुारुआती पूंजी मिलने के बाद जब उन्हें रनिंग कैपिटल की दरकार होती है तो समय पर उन्हें नहीं मिल पाती. इसकी भी कुछ गाइडलाइन तैयार होनी चाहिए. बताइए, भारत का सबसे बड़ा बैंक एसबीआई ने सबसे ज्यादा कर्ज को राइट ऑफ किया. इसने वित्त वर्ष 2020 में 52 हजार 362 करोड़ रुपए के कर्ज को राइट ऑफ किया. इसके बाद इंडियन ओवरसीज बैंक ने 16 हजार 406 करोड़ रुपए, बैंक ऑफ बड़ौदा ने 15 हजार 886 करोड़ और यूको बैंक ने 12 हजार 479 करोड़ रुपए के कर्ज को राइट ऑफ किया. कर्ज को राइट ऑफ किए जाने से बैंकिंग सिस्टम में एक तनाव भी बनता है. क्योंकि ये पैसे वापस नहीं आते हैं और फिर इसके लिए बैंकों को दूसरा रास्ता अपनाना होता है. वह रास्ता फिर पब्लिक की गाढ़ी कमाई को लाकर बैंक को भरना पड़ता है. इस तरह के खातों के लिए बैंकों को अतिरिक्त प्रोविजन करना होता है. यानी इतना पैसा उनको साइड में अलग से रखना होता है. ज्यादातर राइट ऑफ पिछले साल हुए क्योंकि उम्मीद के मुताबिक कर्ज की रिकवरी नहीं हो पाई थी. इसलिए, बैंक वाले अगर कर्ज देते हैं तो वसूली भी करें और सरकारें अगर नीतियों को तोड़मरोड़ कर कर्ज दिलवाती हैं तो बैंकों को कर्ज वसूलने में मन से सहयोग भी करें. पब्लिक मनी का मिसमैनेजमेंट नहीं होना चाहिए.

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