नेपाल में हाल ही में जो घटनाक्रम घटा उसने पूरी दुनिया को चौंका दिया। रातों-रात सड़कों पर उतरे युवाओं ने वहां की सत्ता को ही उखाड़ फेंका। सवाल यह है कि आखिर जनता, विशेषकर युवा, इतना गुस्से में क्यों थे? जवाब सीधा है—“टैक्स हमारा, रईसी तुम्हारी।” यह नारा केवल नेपाल का नहीं, बल्कि आज दुनिया के कई देशों की जनता की पीड़ा का प्रतीक बन गया है।
पिछले कुछ वर्षों में श्रीलंका, बांग्लादेश और फ्रांस जैसे देशों में भी यही दृश्य देखने को मिले। हर जगह एक जैसी शिकायत—भ्रष्टाचार, वंशवाद, असमानता और बेरोजगारी। नेताओं के खिलाफ गुस्से की वजह यही रही कि सत्ता पाने के बाद वे केवल अपने और अपने परिवार के लिए नीतियां बनाते हैं, जबकि जनता को मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित रहना पड़ता है।
भारत भी इस हकीकत से अछूता नहीं है। लोकतंत्र में जनता को सर्वोपरि कहा गया है, लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और ही है। जिन नेताओं को जनता का “सेवक” कहा जाता है, वे मालिक बनकर बैठ जाते हैं। उनके बच्चे विदेशों में पढ़ते हैं, इलाज महंगे निजी अस्पतालों में होता है, जबकि गरीब जनता सरकारी अस्पतालों की लाइन में खड़ी रहती है।
हाल ही में एक रिपोर्ट से खुलासा हुआ कि करोड़पति विधायक और मंत्री अपनी तनख्वाह और पेंशन बढ़ाने के लिए हमेशा एकजुट रहते हैं। वहीं करोड़ों बुजुर्ग, विधवाएं और दिव्यांग आज भी 300 से 500 रुपये की पेंशन पर गुज़ारा करने को मजबूर हैं। महंगाई कई गुना बढ़ चुकी है, लेकिन उनकी पेंशन 15–18 सालों से जस की तस है। यही हाल ईपीएफओ पेंशन का है, जो लंबे समय से 1000 रुपये पर अटकी हुई है, जबकि इसे 7500 रुपये करने का प्रस्ताव सरकार के पास वर्षों से लंबित पड़ा है।
यह असमानता और अन्याय आम जनता में आक्रोश भर रहे हैं। सवाल उठना लाजिमी है—नेताओं और उनके परिवारों के पास सत्ता में आने के बाद इतनी अमीरी कहां से आती है? जनता टैक्स देती है, मेहनत करती है, लेकिन उसे न अच्छी सड़क मिलती है, न गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, न स्वास्थ्य सुविधाएं। दूसरी ओर सत्ता तक पहुंचने वालों का पूरा खानदान रातों-रात करोड़ों में खेलने लगता है।
नेपाल की घटना इसी असमानता का नतीजा है। अगर यही हालात बने रहे तो आने वाले समय में दुनिया के और देशों में भी इसी तरह की चिंगारी भड़क सकती है। असमानता की खाई जितनी गहरी होगी, जनता का गुस्सा उतना ही विस्फोटक होगा।
इसलिए अब वक्त आ गया है कि सत्ता और जनता के बीच की दूरी को कम किया जाए। लोकतंत्र तभी जीवित रहेगा जब जनता खुद को इस व्यवस्था का मालिक महसूस करेगी, न कि गुलाम। नेताओं को यह समझना होगा कि टैक्स जनता का है और उसका इस्तेमाल जनता की भलाई के लिए ही होना चाहिए—न कि सत्ता सुख और रईसी के लिए.