जितिया पूजा सनातन धर्म में आस्था व प्रकृति के संगम का प्रतीक

जितिया पूजा विशेष

माताओं की संतानों के लिए दीर्घायु व कल्याण का है व्रत

प्राचीन काल से सनातन धर्म में विभिन्न देवी देवताओं की पूजा – अर्चना व आराधना वेद, शास्त्र व पुराणों में वर्णित नियमों के अनुसार की जाती है । इसमें जीवित्पुत्रिका की आराधना भी एक महत्वपूर्ण पूजा है जो जितिया पूजा के नाम से प्रचलित है। विक्रम संवत के आश्विन मास में कृष्ण पक्ष के सातवें से नौवें दिन तक यह तीन दिवसीय पर्व है। इस पूजा में आस्था व प्रकृति का विशेष संगम देखा जाता है। यह पूजा बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश व नेपाल में धार्मिक अनुष्ठान के रूप में आयोजित की जाती है। यह एक निर्जला व्रत है और माताओं द्वारा अपनी संतानों के दीर्घायु व कल्याण के लिए की जाती है। तीन दिन तक माताओं द्वारा निर्जला ( बिना पानी पिये ) व्रत रखा जाता है। दुनिया में जीव मात्र में ही संतान को सबसे अधिक स्नेह एकमात्र माता से ही प्राप्त होता है। यह इसका प्रमाण है। इस पूजा में गन्ने की डाली की स्थापना कर विभिन्न प्रकार के फल, पुष्प व चना, कुरथी, मूंग, बाटला आदि अनाज के अंकुर के साथ पूजा की जाती है। इसमें खीरा का भी काफी महत्व है। इससे प्रमाणित होता है कि यह पूजा आस्था व प्रकृति का संगम है।

धार्मिक शास्त्रों के अनुसार जीवित्पुत्रिका की व्रत कथा में यह माना जाता है कि एक बार एक चील व एक मादा लोमड़ी हिमालय में नदी के पास एक जंगल में रहते थे। दोनों ने कुछ महिलाओं को पूजा करते हुए देखा तो उन्होंने भी इस पूजा करने की कामना की। व्रत के समय निर्जला उपवास के कारण लोमड़ी भूख से बेहोश हो गई और चुपके से भोजन किया। दूसरी ओर चील ने पूरे समर्पण के साथ व्रत का अनुपालन किया। परिणामस्वरूप लोमड़ी से जन्मे सभी बच्चे की कुछ दिन बाद मृत्यु हो गई और चील की संतान को लंबी उम्र की प्राप्ति हुई।

परंपरा से दूर होती प्राचीन संस्कृति

पूर्व में जितिया पूजा के बाद रात्रि जागरण के दौरान गांव के युवक – युवतियों द्वारा पारंपरिक वाद्य यंत्रों के धुनों पर गीत नृत्य प्रस्तुत कर खुशियां मनाई जाती थी। लेकिन अब पाश्चात्य संस्कृति के समावेश तथा तकनीकी विकास के कारण गीत नृत्य की प्राचीन संस्कृति और सभ्यता से युवा दूर होने लगे।

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