देशभक्ति विशेष , “खुदीरामेर फांसी” नाटक के जीवंत मंचन पर दर्शकों के आंखे हुई नम

चांडिल : सरायकेला खरसावां जिला के चांडिल अनुमंडल अंतर्गत कुकडू प्रखंड के सिरूम में शुक्रवार की रात आयोजित विचित्र अनुष्ठान त्रिनयनी नृत्य झंकार मनोरमा के कलाकारों ने रोमांचकारी प्रदर्शन से दर्शकों का खूब मनोरंजन किया। कार्यक्रम का आयोजन झारखंड आंदोलनकारी मोर्चा के तत्वावधान में तिरूलडीह गोलीकांड के शहीद अजित-धनंजय महतो के शहादत दिवस पर किया गया था। पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर के कलाकरों द्वारा सात मंचों में एक साथ पौराणिक, सामाजिक, काल्पनिक, हास्य-व्यंग के साथ नृत्य पेश किया। इसके साथ ही कार्यक्रम में आजादी के आंदोलन में खुदीराम बोस के ऐतिहासिक क्रांतिकारी योगदान के साथ भारत-पाकिस्तान युद्ध की जीवंत प्रस्तुति दी गई। कलाकारों ने दोनों विषयों पर जीवंत प्रस्तुति दी। नाटक के माध्यम से कलाकारों ने आजादी के आंदोलन में खुदीराम बोस के योगदान को दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत किया। वहीं बालक खुदीराम के रोमांचकारी कारनामों को दिखाया। इसके साथ ही कलाकारों ने भारत-पाकिस्तान युद्ध की विभिषिका को दर्शाकर उपस्थित लोगों को उत्साहित किया। कार्यक्रम का शुभरंभ सरायकेला खरसावां जिला परिषद उपाध्यक्ष मधुश्री महतो ने फीता काटकर किया।

वह खौफनाक मंजर की याद से अब भी कांप जाती है रूह : सुनील महतो

कार्यक्रम में उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए झारखंड आंदोलनकारी मोर्चा के अध्यक्ष सुनील कुमार महतो ने कहा कि बात आज से 39 वर्ष पहले 21 अक्टूबर 1982 की है। झारखंड के कोल्हान प्रमंडल के औद्योगिक शहर जमशेदपुर से सटे ईचागढ़ का हर गांव सूखे से जूझ रहा था। सुनील दा ने कहा कि खेतों में दरार देखकर किसानों का कलेजा फट रहा था। चारो तरफ त्राहिमाम की स्थिति बनी हुई थी। जिंदगी और मौत से लोग जूझ रहे थे ऐसे में ईचागढ़ विधानसभा क्षेत्र के छात्र-युवा ने आंदोलन का बिगुल बजा दिया। सुनील दा ने कहा कि क्रांतिकारी छात्र युवा मोर्चा के बैनर तले छात्र, युवा व किसानों का जनसैलाब ईचागढ़ प्रखंड के तत्कालीन मुख्यालय तिरूलडीह में उमड़ पड़ा। तत्कालीन सरकार को जनतांत्रिक तरीके से अपनी बात बताने आए इन निहत्थे ग्रामीणों पर पुलिस ने बिना किसी के आदेश के ताबड़तोड़ फायरिंंग कर दी। चारों दिशा में भगदड़ मच गई। इसी बीच पुलिस की गोली लगने से आंदोलन में शामिल धनंजय महतो व अजीत महतो मौके पर ही शहीद हो गए। सुनील दा ने कहा कि अब भी आंखों में उतर आता है वह खौफनाक मंजर जैसे ही 21 अक्टूबर हर वर्ष धमक पड़ता है, उस स्याह दिन की यादें ताजा हो उठती हैं।

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