कड़वा सच- लाखों में खेलने वाले पत्रकारों के लिये बहाये जाते हैंं आंसू, जमीन से जुडक़र कलम घिसने वालों की कोई नहीं लेता सुध

एनडीटीवी के बिकने और पत्रकार रवीश कुमार के इस्तीफे की खबर को लेकर बवाल मचा हुआ है। इसे पत्रकारिता के लिये काला दिन साबित करने की कोशिश हो रही है। भाजपा की मोदी सरकार पर आवाज दबाये जाने का आरोप लगाया जा रहा है। सवाल है कि केवल एनडीटीवी के साथ ही ऐसा हुआ है क्या? पिछले सात सालों में केवल झारखंड में सैकड़ों मासिक एवं पाक्षिक पत्रिकाओं के प्रकाशन बंद हो गये लेकिन तब किसी को लोकतंत्र पर खतरा नहीं दिखा। उनको लिये किसी ने आंसू नहीं बहाये । पत्र पत्रिकाओं एवं लघु एवं मध्यम श्रेणी के समाचार पत्रों के साथ पूरे देश में कमोवेश ऐसे ही हालात हैं । लेकिन क्या ऐसी पत्रिकाएं या समाचार पत्रों के लिये या इनसे जुड़े पत्रकारों को लेकर ऐसी हाय तौबा मची? कौन रोता है ऐसों के लिये? जबकि माना जाता है कि सरकार के लिये बड़े मीडिया संस्थान पर नियंत्रण पाना आसान है लेकिन क्षेत्रीय पत्रकारिता करने वाले उनसे सीधे सवाल कर उसके लिये असहज स्थिति बनाते रहते हैं। जिनको बड़ा पत्रकार कहा जाता है क्या वे पत्रकारिता कर रहे हैं? वे किसी न किसी एजेंडा से प्रभावित दिखते हैं। उनकी दुर्भावना से प्रेरित विचार गफलत ही पैदा करते हैं।वे जो सवाल पूछते हैं, उनकेपीछे की उनकी मंशा समझने की जरुरत है। । बेंगलुरु में अंग्रेजी पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या होती है तो पूरे देश में कैंडल मार्च निकाला जाता है लेकिन इसी दिन सीवान के एक पत्रकार राधाकांत सिंह की हत्या वहां के एक बहुबलि राजनेता करवा देता है तो उसके लिये कोई खड़ा नहीं होता। यह दोहरा मापदंड कचोटने वाला है। इसी कारण हाय तौबा मचाये जाने की मंशा कुछ और होती है।
पत्रकारिता की चुनौतियां कभी कम नहीं रहीं। हमेशा से उनको चुनौतियों का सामना करना पड़ता रहा है यह जरुर है कि इन दिनों अतिरेक में कुछ ज्यादा ही हो रहा है।अब कार्टून कटाक्ष अखबारों से गायब हो चुके हैं। पिछले कुछ सालों में मीडिया का स्वरुप तेजी से बदला है। मीडिया पर कारपोरेट घरानों का कब्जा होता जा रहा है। अब मल्टी संस्करण के अखबारों के जरिये पैसा कमाना बड़ा उद्देश्य हो गया है। पत्रकारिता के बजाय कारोबार होने लगा है। अपने संस्करणों का प्रभाव कायम कर सरकारों या कारपोरेट संस्थानों से विज्ञापन लिये जाने लगे हैं। एक दौर था जब मीडिया प्रबंधन श्रमजीवी पत्रकारों के हाथों में हुआ करता था। ऐसे संस्थानों की पत्रकारिता की धार ही अलग होती है । बढते खर्च के कारण अब ऐसे संस्थानों के सामने संकट आ गया है। इसी बीच अखबारों या मीडिया संस्थानों पर कारपोरेट का कब्जा होने लगा है और उसके बाद से पत्रकारिता की धार कुंद होने लगी है। हर महीने लाखों की पगार पाने वाले टीवी एंकरों से पत्रकारिता की अपेक्षा भी नहीं की जानी चाहिये। वे एजेंडा के तहत मुद्दे लेकर आते हैं। सवाल किसी और का होताहै, कलम या आवाज उनकी होती है। देखा जाये तो देश में 90 प्रतिशत के करीब ऐसे पत्रकार हैं जो क्षेत्रीय पत्रकारिता से जुड़े हैं उनके पास संसाधनों का अभाव है। उनकी पगार काफी कम है। लेकिन जमीन पर वे ही पत्रकारिता का धर्म निभाते हैं लेकिन वे जब परेशानी में आते हैं तो उनके लिये कोई आवाज नहीं उठाता। उनके लिये कैंडल मार्च नहीं निकाला जाता।ं पत्रकारिता जनता के प्रति जवाबदेह होती है और सरकार से सवाल करती है। लेकिन आज सवाल पूछा जाना गुनाह होता जा रहा है। कारण भी है क्योंकि सवाल जनता को राहत पहुंचाने के बजाय एजेंडा की पूर्ती के लिये पूछे जाने लगे हैं। कैसे कैसे बेतुके मुद्दों पर बहस होती है, यह सभी को पता है।
आज जिन पत्रकारों को लेकर आंसू बहाये जा रहे हैं वे चैनलों से हटने के बाद यू ट्यूबर हो गये हैं और फिर वहां लाखों कमाने लगे हैं। उनका अपना एजेंडा होता है। ऐसों ं को ही सम्मान मिलता है। उनको ही पुरस्कृत किया जाता है । सोशल मीडिया के इस दौर में कोई कुछ भी कहने को स्वतंत्र है लेकिन इसका दूसरा पहलु यह भी है कि अब कोई अपने विचार के विपरीत बात सुनने को तैयार ही नहीं । और की कौन कहे अपने मित्रों के वाट्सएप ग्रुप में ऐसे मुद्दों को लेकर मारामारी की स्थिति पैदा हो जाती है। आप जिस मोहल्ला, कॉलोनी या गांव या जिस क्षेत्र में भीं रहते हैं वहां के व्हाट्सएप ग्रुप है में भी ऐसी भिड़ंत देखी जा सकती है। एक दूसरे को अपने ही ग्रुप में नींचा दिखाने की कोशिश की जाती है। पूरी मानसिकता ही बदल गई है।
देश में कई दशकों तक एक विचारधारा का राज रहा था। वहअपने हिसाब से सबकुछ तय करता था और वही सत्य माना गयालेकिन अब पिछले कुछ सालों में वह विचारधारा हाशिए पर जाने लगा है और दूसरी विचारधारा का प्रभाव बढ चुका है। यही कारण है कि अभी गोदी मीडिया और टुकड़े टुकड़े गैग वाली पत्रकारिता के बीच तलवारें खिची हुई हैं।इनके बीच ऐसी जंग छिड़ी है जिसने राजनीतिक दलों को भी पीछे छोड़ दिया है। एक दौर था जब पत्रकार आपस में कोई टीका टिप्पणी सार्वजनिक रूप से करने से बचते थे किसी अखबार में छपी किसी खबर का खंडन दूसरा अखबार प्रकाशित नहीं करता था वह गरिमा आज तार-तार हो गई है। कोई कहता है 2014 के बाद यह दौर आया । लेकिन यह भी हकीकत है कि इसदौर में सोशल मीडिया का इस्तेमाल या दुरुपयोग भी काफी बढा है। आज जिसके हाथ मोबाइल है वही पत्रकार हो गया है। लेकिन पत्रकाििरता कितने कर रहे हैं, यह कौन देख रहा है?

Share this News...