सर दोराबजी श्रमिकों के कल्याण में गहरी रुचि रखते थे, जे. एन. टाटा के स्थापित कर्मचारी कल्याण के आदर्शों को बढाते रहे आगे

 

सर दोराबजी जी टाटा का जन्म 27 अगस्त, 1859 को हुआ था और वे जे. एन. टाटा के बड़े बेटे थे। इंग्लैंड में शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपने करियर की शुरुआत पत्रकारिता से की और कुछ समय के लिए बॉम्बे गजट में कार्य किया। टाटा समूह तथा भारत की औद्योगिक प्रगति में उनके योगदान को सर एन. बी. सक़लतवाला, जिन्होंने उनके बाद टाटा स्टील के चेयरमैन का पद संभाला, ने अत्यंत उपयुक्त शब्दों में अभिव्यक्त किया।
टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी के अस्तित्व का श्रेय बहुत हद तक उस अटूट समर्पण और दृढ़ निश्चय को जाता है, जिसके साथ सर दोराबजी ने अपने पिता की दूरदर्शी सोच को हकीकत का रूप दिया। 1907 में कंपनी की स्थापना से लेकर 1932 तक—लगभग पच्चीस वर्षों तक—वे इसके चेयरमैन रहे और इस महान उद्योग को मजबूत एवं स्थायी आधार प्रदान करना ही उन्होंने अपने जीवन का संकल्प बना लिया। स्वास्थ्य बिगड़ने तक उन्होंने तन-मन-धन से अथक परिश्रम किया और कभी भी अपने प्रयासों को कमजोर नहीं पड़ने दिया।
सर दोराबजी श्रमिकों के कल्याण में गहरी रुचि रखते थे और हमेशा जे. एन. टाटा द्वारा स्थापित कर्मचारी कल्याण के आदर्शों को आगे बढ़ाते रहे। 1920 की श्रमिक हड़ताल के दौरान वे जमशेदपुर पहुँचे, श्रमिकों की शिकायतें ध्यान से सुनीं और हड़ताल को समाप्त कराने में अहम भूमिका निभाई।
बचपन से ही खेलों में गहरी रुचि रखने वाले सर दोराबजी एक बेहतरीन घुड़सवार थे। युवावस्था में उन्होंने मात्र नौ घंटे में बॉम्बे से पुणे तक घुड़सवारी कर यह सिद्ध कर दिया था। कैम्ब्रिज में पढ़ाई के दौरान वे टेनिस, फुटबॉल और क्रिकेट जैसे खेलों में भी उत्कृष्ट रहे। अंतरराष्ट्रीय खेल जगत से भारत को परिचित कराने में उनका योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण था। 1920 के एंटवर्प ओलंपिक खेलों में उन्होंने स्वयं अपने खर्च पर चार एथलीटों और दो पहलवानों को भाग लेने का अवसर प्रदान किया—यह उस समय की बात है जब भारत की कोई आधिकारिक ओलंपिक संस्था भी अस्तित्व में नहीं थी।
उन्होंने 1924 के पेरिस ओलंपिक में भारत की भागीदारी सुनिश्चित की और अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति के सदस्य नियुक्त हुए। 1928 के एम्स्टर्डम ओलंपिक में भारत ने हॉकी में अपना पहला स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रचा।
उनका परोपकार गहन और अत्यंत उदार था। 1932 में आयोजित पहले संस्थापक दिवस समारोह के अवसर पर उन्होंने जमशेदपुर के श्रमिकों के कल्याण हेतु ₹25,000 का अनुदान दिया। इसके बाद उन्होंने एक परोपकारी ट्रस्ट की स्थापना की, जिसमें तीन करोड़ रुपये से अधिक मूल्य की संपत्ति समर्पित की, ताकि जरूरतमंद और वंचित वर्ग की सहायता की जा सके। सर दोराबजी ने अपने अटूट समर्पण का परिचय तब दिया जब 1920 के दशक में टाटा स्टील को संकट से उबारने के लिए उन्होंने अपनी निजी संपत्ति तक गिरवी रख दी।
सर दोराबजी टाटा को वर्ष 1910 में ‘नाइट’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था। 3 जून, 1932 को उनका निधन हो गया।

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