नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि गवर्नर और प्रेसिडेंट के लिए मंजूरी देने की कोई टाइमलाइन तय नहीं की जा सकती और गवर्नर राज्य विधानसभाओं द्वारा पास किए गए बिलों को अनिश्चित काल तक नहीं रोक सकते.
चीफ जस्टिस बी आर गवई की अगुवाई वाली एक कॉन्स्टिट्यूशन बेंच ने प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर अपनी राय दी. इस बेंच में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी एस नरसिम्हा और जस्टिस ए एस चंदुरकर शामिल रहे. इसमें पूछा गया था कि क्या कोई कॉन्स्टिट्यूशनल कोर्ट राज्य विधानसभाओं द्वारा पास किए गए बिलों को मंजूरी देने के लिए गवर्नर और प्रेसिडेंट के लिए टाइमलाइन तय कर सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने 10 दिनों तक दलीलें सुनने के बाद 11 सितंबर को फैसला सुरक्षित रख लिया था.
आर्टिकल 200 और आर्टिकल 201 में गवर्नर और प्रेसिडेंट के अपने अधिकार का इस्तेमाल करने की टाइम लिमिट के बारे में सवालों पर अपनी राय देते हुए सीजेआई ने कहा, ‘आर्टिकल 200 और 201 का टेक्स्ट इस तरह से बनाया गया है ताकि संवैधानिक अधिकारियों को अलग-अलग हालात और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपना काम करने में एक लचीलापन मिले.
इसके नतीजे में हमारे जैसे फेडरल और डेमोक्रेटिक देश में कानून बनाने की प्रक्रिया में बैलेंस बनाने की जरूरत पड़ सकती है. टाइमलाइन लगाना इस लचीलेपन के बिल्कुल खिलाफ होगा जिसे संविधान ने इतनी सावधानी से बनाए रखा है.’ डीम्ड असेंट से जुड़े सवालों पर सीजेआई ने कहा कि आर्टिकल
200 और 201 के हिसाब से ‘डीम्ड असेंट’ का कॉन्सेप्ट यह मानता है कि एक कॉन्स्टिट्यूशनल अथॉरिटी (यहां, कोर्ट), दूसरे कॉन्स्टिट्यूशनल अधिकारी (यहां, गवर्नर, या प्रेसिडेंट) के लिए ‘सब्स्टिट्यूशनल रोल’ निभा सकती है.
सीजेआई ने कहा, ‘गवर्नर के गवर्नर वाले काम और इसी तरह प्रेसिडेंट के कामों पर इस तरह कब्जा करना, न सिर्फ कॉन्स्टिट्यूशन की भावना के खिलाफ है, बल्कि खास तौर पर, शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत के भी खिलाफ है – जो भारतीय कॉन्स्टिट्यूशन के बेसिक स्ट्रक्चर का हिस्सा है.’
सीजेआई ने कहा, ‘हमें यह नतीजा निकालने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि आर्टिकल 142 के तहत अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल करते हुए कोर्ट द्वारा पेंडिंग बिलों पर डीम्ड असेंट का कॉन्सेप्ट, असल में एक अलग संवैधानिक अथॉरिटी की भूमिका और काम पर कब्जा करना है. आर्टिकल 142 पर भरोसा करने से संवैधानिक प्रावधानों की जगह नहीं ली जा सकती.’
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि गवर्नर या प्रेसिडेंट द्वारा काम करना न्यायसंगत नहीं है और इस बात पर जोर दिया कि ज्यूडिशियल रिव्यू तभी किया
जा सकता है जब बिल कानून बन गया हो. सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि जब बिल आर्टिकल 200 के तहत गवर्नर द्वारा रिजर्व किया जाता है तो
प्रेसिडेंट रिव्यू मांगने के लिए मजबूर नहीं हैं. बेंच ने कहा, ‘अगर किसी बाहरी वजह से प्रेसिडेंट रिव्यू मांगना चाहते हैं, तो वे मांग सकते हैं.’
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इंडियन फेडरलिज्म का जो भी मतलब हो हमें लगता है कि आर्टिकल 200 में बातचीत के तरीके को फॉलो किए बिना गवर्नर
को बिल रोकने की इजाजत देना फेडरलिज्म के सिद्धांत के खिलाफ होगा और राज्य विधानसभाओं की शक्तियों का हनन होगा.
बेंच ने कहा, ‘हमारी राय में गवर्नर और हाउस (या हाउसेस) के बीच संवैधानिक बातचीत शुरू करने वाला पहला प्रोविजो और आर्टिकल 200 के मुख्य
हिस्से के तहत प्रेसिडेंट के विचार के लिए बिल को रिजर्व करने का ऑप्शन, इंडियन फेडरलिज्म की कोऑपरेटिव भावना का उदाहरण है. संविधान में
बताए गए चेक्स-एंड-बैलेंस मॉडल के अलग-अलग पहलुओं को भी सामने लाता है.
हम चेक्स-एंड-बैलेंस के पारंपरिक नजरिए के आदी हैं, जहाँ एक इंस्टीट्यूशन या ब्रांच के लिए गए फैसले को दूसरी द्वारा रद्द कर दिया जाता है. हमारी
सोची-समझी राय में इस समझ को और ज्यादा बारीक समझ की जगह लेनी चाहिए. बेंच ने कहा.
बेंच ने कहा कि गवर्नर के पास आर्टिकल 200 के तहत तीन संवैधानिक ऑप्शन हैं. मंज़ूरी देना, बिल को प्रेसिडेंट के विचार के लिए रिजर्व रखना या
मंजूरी न देना और कमेंट्स के साथ बिल को लेजिस्लेचर को वापस करना. आर्टिकल 200 का पहला प्रावधान मुख्य हिस्से से जुड़ा है. चौथा ऑप्शन
देने के बजाय मौजूदा ऑप्शन को रोकता है. जरूरी बात यह है कि तीसरा ऑप्शन – मंजूरी न देना और कमेंट्स के साथ वापस करना है.
गवर्नर के पास तभी उपलब्ध है जब यह मनी बिल न हो. सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के मामले में दो जजों की बेंच के 8 अप्रैल के फैसले के बाद
प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर अपनी राय दी. प्रेसिडेंट द्रौपदी मुर्मू ने 13 मई को सुप्रीम कोर्ट में यह रेफरेंस दिया था कि क्या राज्य लेजिस्लेचर द्वारा पास
किए गए बिलों को मंज़ूरी देने के लिए गवर्नर और प्रेसिडेंट पर टाइमलाइन लगाई जा सकती है.
8 अप्रैल को जस्टिस जे बी पारदीवाला और आर महादेवन की दो जजों की बेंच ने तमिलनाडु राज्य के खिलाफ तमिलनाडु के गवर्नर के मामले में कहा कि अगर गवर्नर किसी बिल पर मंज़ूरी नहीं देते हैं या उसे रिजर्व रखते हैं तो उन्हें तीन महीने के अंदर और अगर कोई बिल दोबारा पास होता है तो एक महीने के अंदर कार्रवाई करनी होगी.
बेंच ने यह भी कहा कि प्रेसिडेंट को गवर्नर द्वारा उनके विचार के लिए रिजर्व किए गए बिलों पर रेफरेंस मिलने की तारीख से तीन महीने के अंदर फैसला करना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि तमिलनाडु के गवर्नर का 10 बिलों पर मंजूरी न देने का फैसला ‘गैर-कानूनी’ और ‘मनमाना’ था. उसने संविधान के आर्टिकल 142 के तहत पावर का इस्तेमाल करके उन बिलों को पास और मंज़ूर घोषित कर दिया.
बातचीत अपनानी होगी
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बातचीत का प्रोसेस, जिसमें अलग-अलग या विरोधी नजरियों को समझने और उन पर सोचने, उनमें सुलह करने और कंस्ट्रक्टिव तरीके से आगे बढऩे की क्षमता हो, उतना ही असरदार चेक-एंड-बैलेंस सिस्टम है जो संविधान ने तय किया है. कोर्ट ने कहा, ‘एक बार यह नजरिया समझ में आ जाए तो अलग-अलग संवैधानिक पदों या संस्थाओं में बैठे लोगों को भी यह बात अपने अंदर बिठा लेनी चाहिए कि बातचीत,
सुलह और बैलेंस, न कि रुकावट डालना ही संवैधानिकता का सार है जिसका हम इस रिपब्लिक में पालन करते हैं.’
पांच जजों की बेंच ने कहा कि यह नतीजा निकालना गलत होगा कि कोर्ट ने फेडरलिज्म पर पहले के तरीकों से हटकर नए तरीके अपनाए हैं. बेंच ने कहा कि उसने सिर्फ अपने सामने रखे गए अलग-अलग संवैधानिक सवालों का अलग-अलग नजरिए से एनालिसिस किया है और इंडियन फेडरलिज्म के पहलुओं पर कमेंट किया है.
उसने कहा, ‘कोई भी एक जानकारी – फेडरल, क्वासी फेडरल, यूनिटरी बायस वाला फेडरलिज्म, प्रैक्टिकल फेडरलिज्म, कोऑपरेटिव फेडरलिज्म या एसिमेट्रिकल फेडरलिज्म, इंडियन फेडरलिज्म के नेचर को पूरी तरह से नहीं बताती, लेकिन हर एक इंडियन फेडरलिज्म के नेचर को समझने के एक खास नजरिए में मदद करता है.’
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 200 के तहत गवर्नर का काम करना, न्याय के लायक नहीं है और वह इस तरह लिए गए फैसले का मेरिट रिव्यू नहीं कर सकता. सीजेआई ने कहा, ‘हालांकि, लंबे समय तक, बिना किसी वजह के और अनिश्चित समय तक कोई कार्रवाई न करने की गंभीर स्थिति में कोर्ट गवर्नर को आर्टिकल 200 के तहत एक सही समय में अपना काम करने के लिए एक सीमित आदेश जारी कर सकता है.
